मक्का एक प्रमुख खाद्य फसल है, जो मोटे अनाजों की श्रेणी में आता है और भुट्टा भी खाया जाता है। यह भारत के अधिकांश मैदानी भागों से लेकर 2700 मीटर उँचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों तक सफलतापूर्वक उगाया जाता है। बलुई, दोमट मिट्टी मक्का की खेती के लिए बेहतर समझी जाती है। यह फसल मनुष्य के साथ-साथ पशुओं के आहार का प्रमुख अवयव है और औद्योगिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है।
मक्का का उपयोग चपाती, भुट्टे सेंककर, मधु, कॉर्नफ्लेक्स, पॉपकार्न, लइया आदि के रूप में किया जाता है। इससे आज कल मक्का कार्ड आइल, बायोफ्यूल बनाने में भी उपयोग होता है। लगभग 65 प्रतिशत मक्का का उपयोग मुर्गी और पशु आहार के रूप में होता है, जिससे पौष्टिक रूचिकर चारा प्राप्त होता है।
पत्ती झुलसा
इस रोग में पत्तियों पर बड़े लम्बे अथवा कुछ अण्डाकार भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। इस रोग के प्रभाव से पौधे के नीचे की पत्तियां पहले सुखने लगती हैं, जब यह रोग बढ़ता है, तो पौधे की ऊपर की पत्तियां भी धीरे-धीरे सूखने लगती हैं, जिससे पौधे का संपूर्ण विकास रुक जाता है।
रोकथाम–
- यदि आपके क्षेत्र में प्रतिरोधी किस्में उपलब्ध हों तो पौधे लगाएं।
- मोनोकल्चर से बचने के लिए मक्के की विभिन्न किस्में लगाएं।
- खेत को साफ-सुथरा रखना सुनिश्चित करें।
- गैर-मेज़बान फसलों के साथ चक्रीकरण करें।
- फसल अवशेषों को मिट्टी में दबाने के लिए गहरी जुताई करें।
- फसल के बाद परती की योजना बनाएं।
- इस रोग की रोकथाम के लिए, एक हेक्टेयर के लिए जिनेब या जिंक मैगनीज कार्बमेट दो किलोग्राम, अथवा जीरम 80 प्रतिशत, संस्करण को दो लीटर, अथवा जीरम 27 प्रतिशत संस्करण को तीन लीटर की दर से खेत में छिड़काव करना चाहिए।
- इसके अलावा नीम के तेल की 300 मि. ली. का छिडकाव पानी में मिलाकर करने से भी पौधों में लाभ देखने की मिलता है।
डाउनी मिल्डयू
मक्के के पौधों पर यह रोग पौधों के अंकुरण के 12 से 15 दिन बाद दिखाई देने लगता है। इस रोग के लगने पर पौधों की पत्तियों पर पहले सफेद रंग की धारियां दिखाई देती हैं। जब यह रोग बढ़ जाता है, तो प्रभावित पौधों की पत्तियों पर सफेद रुई जैसा आवरण दिखाई देने लगता है, जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया बंद हो जाता है। इससे पौधे का विकास भी रुक जाता है, और इस कारण पैदावार को बहुत नुकसान होता है।
रोकथाम –
- मक्के के खेत के पास सहपार्श्विक और जंगली पौधों के उन्मूलन और संक्रमित मक्के के पौधों को नष्ट करने का सुझाव दिया गया है।
- गहरी जुताई तथा अन्य तरीकों से पौधों के अवशेषों को नष्ट करना।
- खड़ी फसल में यदि किसान को रोग की आशंका हो, तो प्रति लीटर पानी में दो ग्राम मैनकोजेब की ढाई ग्राम मात्रा को मिलाकर पौधों पर रोग का पता लगने पर शुरुआत में छिड़कना उचित होगा।
- इसके अलावा डायथेन एम-45 दवा की सही मात्रा को पौधों पर तीन से चार बार छिड़काव करना चाहिए।
तना सडऩ
यह रोग विशेष रूप से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में प्रसारित होता है।इस रोग की शुरुआत पौधे पर पहली गांठ से होता है, बेसल अंतःखंड में मुलायम सिराप विकसित होता है और वह जल से भिगी हुई दिखाई देता है।, जो शीघ्र ही सड़ने लगते हैं और उससे एक विशेष दुर्गंध आती है।पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और उसके बाद सूख जाती हैं।
रोकथाम-
- रोग प्रतिरोधी किस्मों, यानी संकर गंगा सफेद-2, डीएचएम 103 का उपयोग अन्य संकरों की तुलना में काफी कम रोग घटना दर्शाता है।
- जलभराव और खराब जल निकासी से बचें।
- जब रोग दिखाई देने लगे तो प्रति हेक्टेयर में 15 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीनया 60 ग्राम एग्रीमाइसीन और 500 ग्राम कॉपर आक्सीक्लोराइड की मात्रा से छिड़काव करने से अधिक लाभ हो सकता है।
- इसके अलावा कैप्टन दवा का छिडकाव भी प्रभावशाली होता है।
मक्का रस्ट
मक्के के पौधों में इस रोग का प्रभाव होता है, जिसे पत्तियों पर देखा जा सकता है। यह रोग उभरे हुए भूरे धब्बों के रूप में पत्तियों पर दिखाई देता है, और इन धब्बों को छूने पर हाथों पर भी एक स्लेटी रंग का पाउडर चिपक जाता है। इस रोग का प्रसार पौधों पर अधिक नमी के कारण होता है। जब रोग बढ़ जाता है, तो पत्तियां पीली हो जाती हैं और उनका नाश हो जाता है, जिससे पौधों का विकास रुक जाता है।
रोकथाम–
- स्वच्छता, जुताई और फसल चक्र के माध्यम से अवशेष प्रबंधन
- फसल के अवशेषों की जुताई करने से प्रारंभिक संक्रमण कम हो सकता है
- इस रोग को रोकने के लिए, बीजों की बोने से पहले उन्हें 4 ग्राम प्रति किलो मे टालेक्सिल की दर से उपचार कर लेना उचित होगा।
- जब खड़ी फसल में इस रोग का पता चलता है, तो प्रति लीटर की दर से पानी में ढाई ग्राम मेंकोजेब को मिलाकर पौधों पर छिड़कना चाहिए।
निष्कर्ष :-
मक्के की बीमारियों के प्रबंधन के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, जिसमें फसल चक्र, प्रतिरोधी किस्मों और कवक नाशी के विवेक पूर्ण उपयोग को शामिल किया जाता है। प्रभावी नियंत्रण के लिए प्रारंभिक अवस्था में बीमारियों का पता लगाना आवश्यक है। विशिष्ट बीमारी की तुरंत पहचान करके और उचित हस्तक्षेप लागू करके, जैसे कि रोपण घनत्व को समायोजित करना या जैविक नियंत्रण को नियोजित करके, किसान इन बीमारियों के प्रभाव को कम कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, एकीकृत कीट प्रबंधन रणनीतियों को अपनाने से मक्के की खेती में रोग प्रबंधन के लिए एक स्थायी और पर्यावरण के अनुकूल दृष्टिकोण सुनिश्चित होता है। इन उपायों का तालमेल मक्का की फसलों की सुरक्षा और रासायनिक उपचार पर निर्भरता को कम करते हुए सर्वोत्तम पैदावार हासिल करने में योगदान देता है।